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‘लोक’ शब्द अपनी अर्थवत्ता में इतना अधिक व्यापक और गम्भीर है कि उसके अंतर्गत सामान्य जनसमुदाय से लेकर सम्पूर्ण विश्व अथवा चराचरलोक की अखिल सृष्टि समाविष्ट हो जाती है। उसके साथ ‘साहित्य’ शब्द का समायोजन करने से ‘लोक साहित्य’ पद निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है लोकमानस की परम्परा से विरचित वह साहित्य जो जनगण की वाणी से मुखरित होता है तथा जिसमें जीवन की सहज संवेदनाओं की आकृत्रिम अभिव्यक्ति होती है। यह सामासिक पद जब ‘राजस्थानी’ शब्द के साथ जुड़ जाता है तो वह राजस्थान प्रदेश के विभिन्न अंचलों में निर्मित उस साहित्यनिधि का उद्बोधन कराता है जो उस प्रदेश की कला संस्कृति, लोकगाथा, लोककथा, लोकवार्ता, लोकगीत तथा लोकसम्बंद्ध परम्पराओं से संबंधित है। ‘राजस्थानी लोकसाहित्य’ निश्चय ही उस अगाध और विशाल महासमुद्र की भाँति अनंत मणिरत्नों से देदीप्यमान है, जिसका विवेचन और विश्लेषण करने के उद्देश्य से ही इस ग्रंथ का प्रणयन हुआ है। प्रस्तुत ग्रंथ नौ अध्यायों में विभक्त है जिनमें एक व्यवस्थित प्रणाली से विवेच्य विषय का गम्भीर विवेचन किया गया है। ग्रंथ का प्रथम अध्याय ‘लोकसमीक्षण’ उसके सैद्धांतिक पक्षों की व्याख्या करता है। इसके अंतर्गत लेखक ने ‘लोक’ शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्याविषयक अनेक बिंदुओं का उद्घाटन करते हुए ‘लोकवार्तावृत्त’ महत्व तथा उसकी सीमाएं निर्धारित की हैं। लोकमानस में उसका साहित्यकोष किन-किन रूपों में ढलकर अपनी अस्मिता प्रकट करता है; उसका क्रमिक विश्लेषण करना तथा उसे विभिन्न चरणों में विभक्त करते हुए राजस्थानी लोकसाहित्य से संबंधित संस्थानों का परिचय देना इस अध्याय का प्रमुख प्रतिपाद्य है।
ASIN : B077R36LB8
Publisher : Rajasthani Granthagar (1 January 2020)
Language : Hindi
Paperback : 200 pages
Country of Origin : India